Monday, August 23, 2010

चला रणक्षेत्र से दूर

छोड़ शत्रुओं के बीच मित्र को,
चला रणक्षेत्र से दूर,
मुत्युसैय्या पर लेट,
गिन रहा अंत के दिन।
अतिथि हूं स्वयं के कुटुंब में,
जन्मी ऐसी विरक्ति,
तन भी लगने लगा विलासता का साधन।
किससे छुपाऊं नीर अपने,
अंत समय में छली रूप धर,
हर किसी को देख तुच्छ बनाने पर तुली।
बन सका सपूत,
छोड़ घोर निराशा के बीच परिजन को,
चला काल की निशा में।
कुछ भी सका,
धरा पर स्मरण के लिए,
माटी के सरिता में मिलने से पूर्व,
स्वपन है शिर्फ शेष।

Friday, August 13, 2010

व्याकुल मन

व्याकुल मन, अश्रु भरे नयन,

किनारे पर बैठा देख रहा दुर्दशा,

पथ में रेत, टीले में झीण किनार,

बेसहारा पुत्र, स्पर्श को दर्शन दुर्लभ,

मृत श्वांस, शहर श्मसान।

घोर निराशा के बीच नहीं सुध,

दिशाविहीन चेतन,

आत्म द्रवित समक्ष काल,

भोग रहा विलासिता,

नहीं स्मरण मृत मातृ।

हे माते, दे देवी, हे गंगा,

नहीं नदी, जीवनदायिनी तू,

तुमसे काशी, तुझसे जीवन मेरा,

जल त्यागा, नाश हो जाएगा,

अंत की ओर सृष्टि।

लल्जित हूं, स्वयं की करनी पर,

करोड़ो में एक हाथ मेरा भी,

अहित में तेरे,

फिर भी मान रहा स्वयं की निर्दोष,

दुखी हूं,

शायद मेरे काया को ना मिले आंचल तेरा,

इसलिए दे दूंगा अपनी तिलांजलि,

शायद जाग जाए इंसान,,,







Saturday, May 3, 2008

जीवन के लक्ष्य को पाना हैं आसान

जीवन के लक्ष्य को पाना हैं आसान,

लेकिन अपने लक्ष्य से डगमगाना नहीं,

हर सपने होगें साकार,

और मंजिलें चुमेगीं कदम तुम्हारे,

लेकिन कभी भागना नहीं कभी हारना नहीं।

द्दोड़ दे साथ जब खुद की परद्दाई,

और हो न आंसु पोद्दने वाला कोई,

मित्र बन जायें जब अपने आलोचक,

लेकिन पग से अपने कभी डगमगाना नहीं।

थकना तो रुकना, और इंतजार करना सही समय का,

लेकिन मुड़कर ना देखना पीद्दे कभी,

तुम्हें मिले या ना मिले सफलता या मौका मंच पर जाने का,

तो सोचना गौर से एक बात,

कि मंजिल होती आसान तो कैसे कहलाते हम असाधारण इंसान।

इतिहास साक्षी हैं पहुचां वही हैं जो हारा हैं खोया हैं,

और हर पग पर हुआ है अपमानित।

लेकिन जब पग डगमगा जाये और हो जाये तुम्हारी मंजिल धुंधली,

एक कदम और चलना हो जाये जब दुर्भर,

और परिवार जब द्दोड़ दे साथ,

दुनिया रोड़ा बन जाये जब राहों के तुम्हारे,

तब सोचना कि मंजिल हैं कुद्द कदम की दूरी पर,

इसीलिए कदम रोकना नहीं अपने कभी,

क्योंकि जीवन के लक्ष्य को पाना हैं आसान…………

किसी झील के तीरे

किसी झील के तीरे,

गुमसुम सी बहती नीरे,

वो बैठी थी गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।

वो जग से अंजान थी,

अपनी गुमनामी से परेशान थी,

हो उदास इसलिए बैठी थी गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।

ब पन्नों पर पड़ी थी,

सौ सपने लिए खड़ी थी,

अपने नामकरण की ताक मे गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।

उसने अपने लिए चाही थी प्रसिद्धि,

और अपने लिखने वाले के लिए सम्र्रिद्धि

अपने प्रंसशा की इंतजार में, गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।

थामा हाथ आशा का उसने फिर,

और निकल पड़ी दुनिया की इस भीड़ में,

अनसुनीं, अंदेखे अंजानें रास्ते पर, किसी कद्गदान की तलाश में,

गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता ……………