किसी झील के तीरे,
गुमसुम सी बहती नीरे,
वो बैठी थी गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।
वो जग से अंजान थी,
अपनी गुमनामी से परेशान थी,
हो उदास इसलिए बैठी थी गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।
जब पन्नों पर पड़ी थी,
सौ सपने लिए खड़ी थी,
अपने नामकरण की ताक मे गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।
उसने अपने लिए चाही थी प्रसिद्धि,
और अपने लिखने वाले के लिए सम्र्रिद्धि
अपने प्रंसशा की इंतजार में, गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता।
थामा हाथ आशा का उसने फिर,
और निकल पड़ी दुनिया की इस भीड़ में,
अनसुनीं, अंदेखे अंजानें रास्ते पर, किसी कद्गदान की तलाश में,
गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता गुमनाम सी मेरी नन्ही सी कविता ……………
1 comment:
I wish you a very successful bloggist in future santosh bidrohi
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