छोड़ शत्रुओं के बीच मित्र को,
चला रणक्षेत्र से दूर,
मुत्युसैय्या पर लेट,
गिन रहा अंत के दिन।
अतिथि हूं स्वयं के कुटुंब में,
जन्मी ऐसी विरक्ति,
तन भी लगने लगा विलासता का साधन।
किससे छुपाऊं नीर अपने,
अंत समय में छली रूप धर,
हर किसी को देख तुच्छ बनाने पर तुली।
बन न सका सपूत,
छोड़ घोर निराशा के बीच परिजन को,
चला काल की निशा में।
कुछ भी न सका,
धरा पर स्मरण के लिए,
माटी के सरिता में मिलने से पूर्व,
स्वपन है शिर्फ शेष।
नमस्कार , Gumnam chitthi में आप सभी का स्वागत है। एक मंच की जरुरत थी। गुमनाम विचारों के लिए जो हर रोज हमारे ज़हन में आते हैं धूप की तरह और हर शाम न जाने कहां चले जाते हैं। ऐसे ही द्दोटी-द्दोटी बातें और द्दोटी-द्दोटी कहानियां हमारी जिंदगी को बदल देती हैं, जिसके हम सब कहीं न कहीं एक उदाहरण हैं। तो गुमनाम से इस ब्लाग पर आप सभी का स्वागत हैं, जहां आप पाठक भी होगें और लेखक भी।
Monday, August 23, 2010
Friday, August 13, 2010
व्याकुल मन
व्याकुल मन, अश्रु भरे नयन,
किनारे पर बैठा देख रहा दुर्दशा,
पथ में रेत, टीले में झीण किनार,
बेसहारा पुत्र, स्पर्श को दर्शन दुर्लभ,
मृत श्वांस, शहर श्मसान।
घोर निराशा के बीच नहीं सुध,
दिशाविहीन चेतन,
आत्म द्रवित समक्ष काल,
भोग रहा विलासिता,
नहीं स्मरण मृत मातृ।
हे माते, दे देवी, हे गंगा,
नहीं नदी, जीवनदायिनी तू,
तुमसे काशी, तुझसे जीवन मेरा,
जल त्यागा, नाश हो जाएगा,
अंत की ओर सृष्टि।
लल्जित हूं, स्वयं की करनी पर,
करोड़ो में एक हाथ मेरा भी,
अहित में तेरे,
फिर भी मान रहा स्वयं की निर्दोष,
दुखी हूं,
शायद मेरे काया को ना मिले आंचल तेरा,
इसलिए दे दूंगा अपनी तिलांजलि,
शायद जाग जाए इंसान,,,
किनारे पर बैठा देख रहा दुर्दशा,
पथ में रेत, टीले में झीण किनार,
बेसहारा पुत्र, स्पर्श को दर्शन दुर्लभ,
मृत श्वांस, शहर श्मसान।
घोर निराशा के बीच नहीं सुध,
दिशाविहीन चेतन,
आत्म द्रवित समक्ष काल,
भोग रहा विलासिता,
नहीं स्मरण मृत मातृ।
हे माते, दे देवी, हे गंगा,
नहीं नदी, जीवनदायिनी तू,
तुमसे काशी, तुझसे जीवन मेरा,
जल त्यागा, नाश हो जाएगा,
अंत की ओर सृष्टि।
लल्जित हूं, स्वयं की करनी पर,
करोड़ो में एक हाथ मेरा भी,
अहित में तेरे,
फिर भी मान रहा स्वयं की निर्दोष,
दुखी हूं,
शायद मेरे काया को ना मिले आंचल तेरा,
इसलिए दे दूंगा अपनी तिलांजलि,
शायद जाग जाए इंसान,,,
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