Monday, August 23, 2010

चला रणक्षेत्र से दूर

छोड़ शत्रुओं के बीच मित्र को,
चला रणक्षेत्र से दूर,
मुत्युसैय्या पर लेट,
गिन रहा अंत के दिन।
अतिथि हूं स्वयं के कुटुंब में,
जन्मी ऐसी विरक्ति,
तन भी लगने लगा विलासता का साधन।
किससे छुपाऊं नीर अपने,
अंत समय में छली रूप धर,
हर किसी को देख तुच्छ बनाने पर तुली।
बन सका सपूत,
छोड़ घोर निराशा के बीच परिजन को,
चला काल की निशा में।
कुछ भी सका,
धरा पर स्मरण के लिए,
माटी के सरिता में मिलने से पूर्व,
स्वपन है शिर्फ शेष।

2 comments:

rajiv said...

" अंत समय में छली रूप धर,
हर किसी को देख तुच्छ बनाने पर तुली। "


यहाँ इन दो लाइनों की उपस्तिथि दर्शाती है की आदमी हाड़ - मास का एक मजबूत ढांचा क्यूँ न हो पर दिल बाहरी और भीतरी दुखों से बच नहीं पता और उसकी अभिव्याक्ति आंसुओं की गर्माहट ही कर पाती है|

संदीप said...

" अंत समय में छली रूप धर,
हर किसी को देख तुच्छ बनाने पर तुली।

बहुत बढ़िया !!