Friday, August 13, 2010

व्याकुल मन

व्याकुल मन, अश्रु भरे नयन,

किनारे पर बैठा देख रहा दुर्दशा,

पथ में रेत, टीले में झीण किनार,

बेसहारा पुत्र, स्पर्श को दर्शन दुर्लभ,

मृत श्वांस, शहर श्मसान।

घोर निराशा के बीच नहीं सुध,

दिशाविहीन चेतन,

आत्म द्रवित समक्ष काल,

भोग रहा विलासिता,

नहीं स्मरण मृत मातृ।

हे माते, दे देवी, हे गंगा,

नहीं नदी, जीवनदायिनी तू,

तुमसे काशी, तुझसे जीवन मेरा,

जल त्यागा, नाश हो जाएगा,

अंत की ओर सृष्टि।

लल्जित हूं, स्वयं की करनी पर,

करोड़ो में एक हाथ मेरा भी,

अहित में तेरे,

फिर भी मान रहा स्वयं की निर्दोष,

दुखी हूं,

शायद मेरे काया को ना मिले आंचल तेरा,

इसलिए दे दूंगा अपनी तिलांजलि,

शायद जाग जाए इंसान,,,







5 comments:

Patali-The-Village said...

गंगा माँ को प्रदुषण से बाचने का एक अच्छा प्रयास |

Shashi Kant Singh said...

मनभावन रचना, दिल को छू जाने वाली रचना,
अति सुन्दर, सटिक, एक दम दिल कि आवाज.
कितनी बार सोचता हु कि इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है.
अपनी ढेरों शुभकामनाओ के साथ
shashi kant singh
www.shashiksrm.blogspot.com

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan narayan

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

संगीता पुरी said...

इस नए सुंदर चिट्ठे के साथ आपका ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!